संदेश

व्यक्त करो

संवेदनाएं बची रहें, दुख हो, क्षोभ हो, भय हो,  आशा हो, तृष्णा हो, खुशी हो, दुख हो, व्यक्त करो। आंसू झरे, हंसी खिले, बहने दो। इंसान हो, बुत नहीं, सिर्फ सांस नहीं लेते, जीवित हो, मुर्दों की भांति व्यवहार उचित नहीं।

इक मुलाक़ात

एक भूली-बिसरी ख़्वाहिश अचानक टकरा गई, टकटकी लगाए निहारती रही, फिर बाजू पकड़ बैठा लिया। फिर खुला उसक शिक़ायती पिटारा,  एक के बाद एक उलाहनों का दौर शुरू हुआ। बातों का सिलसिला कुछ यूं चला, के वक़्त फिसलने लगा और हम ठहर गए। कभी भूल जाना, तो कभी हाथ छुड़ा लेना, जाने कितना कुछ कहना था उसे। आंखें निकाल डपटती मुझे, फिर नम आंखें लिए सिसकती। ज़िन्दगी में आगे जाने की हसरत में, न जाने कितने मोड़ों पर कुछ ख़्वाहिशें पीछे छूट जाती हैं। अबकी कोई ख़्वाहिश टकराये,  तो झट से उठा कर सीने से लगा लेना। चुपचाप कुछ वक़्त उसके साथ गुज़ार लेना, फिर ज़रूर मिलेंगे का वादा कर देना।

वजूद

कहने को पूरा घर उसका है, लेकिन घर का कोई एक कोना अपने लिए सिर्फ अपने लिए नहीं रख पाती। यूं तो उसे कोई शिक़ायत नहीं, लेकिन अपने लिए स्पेस की कसमसाहट उसके भीतर है। घर का वो हिस्सा, दिन का वो वक़्त जब सिर्फ अपने लिए उसने रख छोड़ा हो, नहीं है। खयालों में भी बेवजह लोगों की आवाजाही है। शिक़ायत नहीं है, क्योंकि जो उसके पास है, उसे दुनिया में संपूर्णता का नाम दिया जाता है। पूरा परिवार, आलीशान कोठी। कोठी की मालकिन, लेकिन बावजूद उसको अपना वजूद नहीं नज़र आता। किसी की पत्नी, खानदान की बहू और बच्चों की मां। यही तो हैं उसकी कमाई। लेकिन सबमें बंट कर खुद के लिए वो बची ही नहीं। इस कमाई पर उसे गुमान है। फिर भी उसको कुछ तो कम लगता है। घर का वो पिलर है, जिस पर सब टिके हैं, लेकिन क्या उसके होने का अहसास किसी को है?

ज़िन्दगीनामा

कुछ ठहरी, थोड़ी भागती ज़िन्दगी, ज़रा सुस्ताती, कभी हांफती ज़िन्दगी, पलकें झपकाती, कभी टकटकी लगाये ताकती ज़िन्दगी, उलझे-उलझे सवालों के जवाब तलाशती ज़िन्दगी।

मुलाक़ात, ज़रा सी बात

एक भूली-बिसरी ख़्वाहिश अचानक टकरा गई, टकटकी लगाए निहारती रही, फिर बाजू पकड़ बैठा लिया। फिर खुला उसक शिक़ायती पिटारा, एक के बाद एक उलाहनों का दौर शुरू हुआ। बातों का सिलसिला कुछ यूं चला, के वक़्त फिसलने लगा और हम ठहर गए। कभी भूल जाना, तो कभी हाथ छुड़ा लेना, जाने कितना कुछ कहना था उसे। आंखें निकाल डपटती मुझे, फिर नम आंखें लिए सिसकती। ज़िन्दगी में आगे जाने की हसरत में, न जाने कितने मोड़ों पर कुछ ख़्वाहिशें पीछे छूट जाती हैं। अबकी कोई ख़्वाहिश टकराये, तो झट से उठा कर सीने से लगा लेना। चुपचाप कुछ वक़्त उसके साथ गुज़ार लेना, फिर ज़रूर मिलेंगे का वादा कर देना।

मेरी ख़्वाहिशें...

चित्र
उफ्फ़! ये बेअदब ख़्वाहिशें,कैसे मुंह चिढ़ाकर, बिदक जाती हैं, ...और हम इनकी बांह पकड़ खींच लाते हैं। जिद्दी सी पिद्दी सी ख़्वाहिशें, नखरीली, ठिठकी सी दूर बैठी हैं, छुओ तो पिघल जाती हैं, पास न जाओ, तो बुरा मान जाती हैं। नटखट शैतान सी मेरे आजू-बाजू घूमती रहती हैं, अपने वजूद का अहसास कराती हैं, और मानो कहती हैं, हम हैं, तो तुम हो। कभी पक्की सहेली सी, कभी पिद्दी अकेली सी ख़्वाहिशें।

बिछड़ना

मिले तो थे, बिछड़ने के वादे के साथ, फिर क्यों वो तेरा पहली बार अपना कहना याद आता है, क्यों वो तेरा हाथ छुड़ा कर जाना याद आता है। बढ़ चुके हैं हम आगे, फिर क्यों तेरा पीछे छूट जाना याद आता है, मुक्कमल हैं जिंदगी मेरी, फिर क्यों उस आधे ख़्वाब का टूट जाना याद आता है। तू न तो साथी था, न दिया साथ कभी, फिर भी क्यों तेरी वो सोहबत याद है।